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नई दुनिया में बेड़ियां पुरानी

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द्वारिका प्रसाद अग्रवाल

भारतीय समाज में वर्ण व्यवस्था कर्म आधारित थी, जो बाद में जन्म आधारित हो गई। पुराने जमाने में खेती करनेवालों, पशुपालने वालों और रोज़मर्रा की चीजें बेचनेवालों को वैश्य वर्ण का माना जाता था। बाद में वैश्यों ने कृषि और पशुपालन को त्याग दिया और व्यापार में केंद्रित हो गए और बनिया बन गए। बनिया होना उनके रईस होने का सबूत माना जाता था लेकिन यह संबोधन उनकी कंजूसी का पर्याय भी बना। व्यापार में जितनी अहमियत कमाने की है, उतनी बचत की भी होती है, जो रईस होने के लिए जरूरी है। व्यापारियों के इस समूह को 'बनिया' संबोधन जरा अपमानजनक लगता था, इसलिए इन्होंने अपनी मूल पहचान 'वैश्य' को फिर से अपना लिया।

व्यापारी का लड़का व्यापार करेगा, यह सोच उस समय की है, जब शिक्षा का प्रसार नहीं हुआ था। वक्त के साथ वैश्यों की संतानों ने व्यापार की डोर छोड़ना शुरू कर दिया। पुरानी खोल से निकालकर बाहर आ रहा युवा वर्ग अपनी जमीन पर नई पौध तैयार कर रहा है लेकिन ऐसा सिर्फ उन परिवारों में हो रहा है, जो शिक्षा से जुड़ गए और नौकरी को 'नौकरी' न मानकर तरक्की के नए रास्ते अपनाने पर तैयार हो गए।

शिक्षा से जुड़ने के कारण वैश्य परिवारों में विचारों का लेन-देन बढ़ा, खुलापन आया। इस नई सोच ने ऐसे कमाल किए कि पुरानी मान्यताएं और रीति-रिवाज ढह रहे हैं। अब युवा शादी अपनी मर्जी से कर रहे हैं और दूसरी जातियों में भी अपने जोड़े बना रहे हैं। यहां तक कि नई पीढ़ी ने 'हॉरोस्कोप' को 'हॉरर-स्कोप' में बदलकर उसकी अनिवार्यता पर भी सवाल खड़े कर दिए हैं।

इसी तरह लड़कियों की स्थिति भी वैश्य समाज में सुधर रही है। वजह यह है कि लोग मानने लगे हैं कि अगर लड़की को घर में ताले में बंद करके रखेंगे तो वह पढ़ेगी कैसे, अपने व्यक्तित्व को कैसे निखारेगी? लड़की के ससुराल वालों के नखरे भी कम नहीं हैं। बहू पसंद नहीं आई तो सास-ससुर कह देते हैं, 'भगाओ इसे, इसके मां-बाप के घर'। पति को पत्नी पसंद नहीं आई तो वह भी लड़की को छोड़ने की बात करने लगता है। ऐसे में लड़की को पढ़ाना-लिखाना और मजबूत करना पैरंट्स के लिए जरूरी हो गया है।

वैश्यों की सबसे बड़ी ताकत पैसा है और यही उनकी सबसे बड़ी कमजोरी भी। सच तो यह है कि इस समूह को रईस होने की इज्जत हासिल है लेकिन सब रईस नहीं हैं। 'बड़े आदमी' उंगलियों पर गिनने लायक है, बाकी 'स्ट्रगलर' हैं। रईस बनने के चक्कर में ये 'स्ट्रगलर' किसी भी तरह पैसा कमाने के लिए जी-जान से जुटे हैं और अपनी बदहाली छुपाने के लिए कर्ज़ लेकर शादी-ब्याह, जन्मदिन और दूसरे समारोहों में दिखावा कर मालदार लोगों से काल्पनिक प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। यह समुदाय के लिए सही नहीं है।

हमारे वैश्य समाज में संयुक्त परिवार की गहरी परंपरा रही है। मैं भी संयुक्त परिवार में पला-बढ़ा। मुझे यह संस्कार मिला कि परिवार ही संसार में सहायक है, वही पालक है और वही सुरक्षा का सबसे कारगर उपाय भी। वह समय परिवार से जुड़कर रहने का था। संयुक्त परिवार की व्यवस्था मेरे लिए न उपयोगी साबित हुई और न ही सुखदायक। हमारे परिवारों में पढ़ाई-लिखाई को वक्त की बर्बादी माना जाता था। मैंने परिवार से छुपाकर खुद को पढ़ाई-लिखाई से जोड़े रखा। बिल्कुल उसी तरह, जैसे हम लोग छिप-छिपकर पिक्चरें देखने जाया करते थे। मैंने संयुक्त परिवार के लिए बड़ी कुर्बानियां कीं। लेकिन साजिशों का शिकार होकर मुझे घर छोड़ना पड़ा।

सबके अलग-अलग अनुभव हो सकते हैं। मेरा आकलन यह है कि इस अद्भुत व्यवस्था को तानाशाही सोच और व्यक्तिगत स्वार्थ ने भ्रष्ट कर दिया है। वैश्य परिवारों के तेजी से आगे न बढ़ पाने की एक वजह संयुक्त परिवार की परंपरा भी है।

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